मजदूरों के गुजरात से पलायन के लिए कौन जिम्मेवार ?

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फैक्ट्री मालिकों की हालत यह है कि तमाम सुविधाएं रहते हुए भी फैक्ट्री बंद हैं, इसमें कहीं न कहीं मेरे जैसे उद्यमी सफर कर रहे हैं। मजदूरों को डबल पेमेंट पर काम करवाने की इच्छा नहीं हो रही। सवाल है कि काम कितने दिनों तक बंद रखा जाये?

Abhilasha Rai अपने फैक्टरी दफ्तर में

अभिलाषा राय/सूरत

बहुत दिनों से मजदूरों के पलायन पर सोशल मीडिया और टीवी न्यूज़ के जरिये देखती आ रही हूं। मीडिया बता रहा है कि गुजरात, दिल्ली, मुंबई में मजदूरों को कई असुविधाओं से वह पलायन को मजबूर हो रहे हैं। ये सब पढ़कर मैं दुखी हो जाती थी। लेकिन बहुत ही दुख के साथ यह लिखना पड़ रहा है। चूंकि, आप सभी हमारे परिवार के लोग हैं। अतः यह साझा करना जरूरी समझ रही हूं। आप सभी जानते हैं, मैं एक सफल उद्यमी हूँ और सूरत में ‘शिवम टेक्सटाइल’ नाम से मेरी भी एक कंपनी है। अन्य टेक्स्टाइल कंपनियों की तरह हमारे यहां भी मजदूर काम करते हैं।

इंसानियत के नाते मैं 22 मार्च से लेकर 16 मई तक अपने लेबर और सहायकों को भोजन और पेमेंट निरंतर समय पर दे रही थी। पर बीते 16 मई की रात को कुछ हमारे अनेक कारीगर ट्रक से प्रति लेबर 3,200 रुपये का भाड़ा देकर निकल गए। मैं भी बिहार से हूँ। मेरा सवाल है कि इन मजदूरों की निंदा होनी चाहिए या नहीं?

वरिष्ठ आईपीएस अफसर राजेंद्र ब्रह्मभट्ट जी को आप सभी अच्छी तरह जानते हैं। वह हमारे BBW के सम्मानित शख्सियत में से एक हैं। उन्होंने सूरत के G.I.D.C एरिया, जहां काफी सारी फैक्ट्रियां हैं, में राजेंद्र ब्रह्मभट्ट जी ने स्वयं वहां के मजदूर भाइयों को समझाने के लिए एक घंटे की मीटिंग रखी थी और उन्हें आश्वासन भी दिया था कि सरकार उनका पूरा ख्याल रखेगी। इसलिए वे लोग यहां से बाहर न जाएं। पर अधिकतर मजदूर नहीं माने और वे गुजरात को वीरान कर चले गए।

अभिलाषा राय सूरत की अपनी टेक्सटाइल फैक्टरी में

यह आसानी से गले उतरने वाली बात नहीं है कि झुंड के झुंड लोग सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने को लोग विवश हो जाएं। अपना सामान सिर पर उठाए और बच्चों को गोद में लिए महिलाएं भी पैदल चल दें। यह समझ से परे है कि एक समय जब लॉकडाउन में किसी भी सवारी की व्यवस्था नहीं थी तब तो लोगों के सामने पैदल चलने का ही विकल्प था, लेकिन अब तो केंद्रीय गृह मंत्रालय की गाइडलाइन है। राज्यों की मांगों पर केंद्र सरकार श्रमिक स्पेशल रेलें चला रही है। मजदूरों के लिए सरकार बहुत कुछ कर रही है पर सवाल है कि वे अब भी पैदल क्यों चल रहे हैं?

लॉकडाउन आरंभ होने के समय लगता था कि ज्यादातर मजदूर नासमझी कर रहे हैं। जब केंद्र और राज्य सरकारें इनके खाने-पीने से लेकर रहने तक की व्यवस्थाएं कर रही हैं तो इन्हें लॉकडाउन तोड़ने की जरूरत नहीं। ये अपना, परिवार एवं दूसरों की जान भी जोखिम में डाल रहे हैं किंतु अब उन्हें दोष दिया जाए या सरकार को दोषी ठहराया जाए? उनकी आपबीती सुनकर यह सच स्पष्ट हो रहा कि ज्यादातर के पास संकट की घड़ी में कोई पीठ पर हाथ रखने नहीं पहुंचा।
मजदूरों को किसी भी तरह की अगर दिक्कत हो तो उन लोगों के लिए एक हेल्पलाइन नंबर भी जारी किया गया। उसके बावजूद कई मजदूर पैदल या अन्य साधनों से यहां से निकल गए। इसलिए इस लॉकडाउन में काफी हद तक मजदूर भी दोषी हैं। पर आज फैक्ट्री मालिकों की हालत यह है कि तमाम सुविधाएं और संसाधन होते हुए भी फैक्ट्री बंद रखना पड़ रहा है और इसमें कहीं ना कहीं मेरे जैसे उद्यमी भी सफर कर रहे हैं। यहां के मजदूरों को डबल पेमेंट पर काम करवाने की हमारी कतई इच्छा नहीं है। फिर भी काम कितना दिन तक बंद रख सकते हैं। आज एक बार फिर हमारी जिंदगी चुनौतीपूर्ण हो गई है। चूंकि मैं महिला हूं इसलिए मुझे ज्यादा सफर करना पड़ रहा है।

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