कोरोना ने देश की अर्थव्यवस्था की कमर ही तोड़ दी

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कोरोना का कहर अब और विकराल रूप धारण कर चुका है, अब मृत या संक्रमित लोगों में कुछ अपने दूर के मित्र, रिश्तेदार, ऑफिस के सहकर्मी के नजदीकी गिने दिखने लगे, कोरोना का दायरा बढ़ता जा रहा है और हमारी रक्षा घेरे का दायरा घटता जा रहा है। पर साथ ही आश्चर्यजनक रूप से लोगों का डर भी कमतर हो रहा है।

प्रियंकर भट्ट, नई दिल्ली 

प्रियंकर भट्ट/नई दिल्ली

लॉक डाउन: भाग -1
इस साल की 14 या 15 मार्च की तारीख थी, हम अब भी ऑफिस जा रहे थे, तब संक्रमित लोगों की संख्या शायद 100 के आसपास थी। डर सबके मन मे पनपने लगा था। चूंकि, मैं नई दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर एक निजी कंपनी में कार्यरत हूँ, मैं जसोला विहार से सीधी मेट्रो पकड़ कर हवाई अड्डे के टर्मिनल-1 तक पहुँचता था और वहाँ से टर्मिनलों के बीच चलने वाली बस से टर्मिनल-2 पहुँच जाता था जहाँ मेरा कार्यालय है।
तब मेट्रो में सभी के वार्तालाप का मुख्यबिंदु बस कोरोना वायरस ही था। हम रोज़ ऑफिस प्रबंधन को कोसने लगे थे, गालियां देने लगे थे। घर वालों के फोन करने की संख्या और चिंता दोनों में वृद्धि हो चुकी थी और ऑफिस न जाने की हिदायतें मिल रही थीं। इटली, स्पेन की दुर्दशा सुनकर हम सभी सतर्क हो चुके थे। नये-नये शब्द स्थाई रूप से रोजमर्रा की दिनचर्या मे प्रयोग होने लगे थे, जैसे “Sanitizer”, “Social Distancing”, “Face Mask” इत्यादि। ऑफिस बैक-पैक के एक ओर के होल्डर में पानी की बोतल तो दूसरी तरफ “Sanitizer” की बोतल जिसकी जन्म से आज तक कभी कल्पना भी नहीं की थी वो सबरखने लगा।
संक्रमण की संख्या रोज बढ़ने लगी, साथ ही जान का डर भी। 25-मार्च-2020- ये तारीख मुकाम बन चुकी थी, भारतवर्ष रुक गया था। मैं भी अपने भाई, जो बैंक ऑफ बड़ौदा में कार्यरत है, के साथ किराये के एक 2BHK फ्लैट में लॉकडॉन में क़ैद हो चुका था। हम दोनों की पत्नियां हाजीपुर स्थित हमारे घर पर पापा-मम्मी के साथ हैं। इधर तमाम कंपनियों में घर से काम करने की प्रथा शुरू हो चुकी थी।
चूंकि मेरी कंपनी का सारा कारोबार हवाई अड्डे पर ही है, सो सारा कारोबार ठप्प हो चुका था। ऑफिस प्रबंधन छंटनी की तैयारी करने लगा। हालांकि मैं सुरक्षित रहा, फिर भी सहकर्मियों की छंटनी ने दिमाग में एक नकारात्मक सोच पैदा कर दी थी। जैसा कि मैंने बताया, कारोबार ठप्प हो चुका था, घर से काम कुछ था नहीं। जिंदगी स्थूल हो चुकी थी। रोज़ संक्रमित लोगों के मरने की खबरें आने लगी थी। प्रधानमंत्रीजी जब भी देश को संबोधित करने आते थे, उनके चेहरे पर तनाव साफ झलकता था। संक्रमण संख्या बढ़ने लगी, मौत की संख्या साथ साथ बढ़ने लगी।
शुरुआती दिनों में हम अंगुली पर मरने वालों की संख्या बता रहे थे, लेकिन अब मरने वालों की संख्या डाटाशीट में एक स्वचालित संख्या मीटर के आंकड़े का रूप ले चुकी थी। बाहर निकलने में ऐसा प्रतीत होता है जैसे जंग लड़ने जा रहे हों, वो भी एक अदृश्य दुश्मन से, जो हो सकता है, आपको मारने आपके साथ आपके घर आ जाए, उसके उपर मेरे भाई का हर रोज़ ऑफिस जाना, इस लीचर वायरस से इसी वजह से मैं घर मे भी अपने भाई संग सुरक्षित नहीं था। खैर, वक़्त चलता रहता है, और लोगो की मौत और फैलते संक्रमण को देखते सुनते हम मई तक आ गए।
अनलॉक भाग-2
सरकार की जहाँ तक बात है तो केंद्र और राज्य दोनों सरकारों ने इस भयावह महामारी के तांडव के बीच भी मतलब की रोटियाँ सेंकी। राजनीति के बदले अगर इन्होंने रणनीति पर ध्यान लगाया होता तो इतना हो हल्ला न होता। खैर, तो एक दिन ऐसा हुआ कि सरकार को अचानक लगा कि देश की अर्थव्यवस्था लचर हो रही है और हमारी बुद्धिजीवी सरकार ने सारे ठेके खोल दिये, बिना किसी सुदृढ़ योजना के लोग एक दूसरे के कंधे पे चढ़कर मंजिल तक पहुँच जाना चाहते थे बस। देखकर ऐसा लगता था जैसे: “ना मंदिर, ना ही शिवाला रक्षा करेगी बस मधुशाला।। “
सरकार को फायदा हुआ या नहीं ये तो नहीं पता, मगर कोरोना को खूब फायदा हुआ। सरकार सब कुछ खुली आँखों से देख रही है, मौत और संक्रमण की संख्या अब गुच्छों में कई गुणा बढ़ रही थी। साथ में कई कंपनियां बंद हो गई, और अनगिनत बेरोजगार। कहते है कि जहाँ पति, पत्नी, बच्चे और माँ बाप होते हैं वही मुकाम होता है, पर हमारी सरकार और इस वायरस ने लाखों लोगों को ये जता दिया की मुकाम आखिर में अपना गाँव, अपना शहर ही होता है, क्योंकि हर जगह जब मौत पसरी थी तो लोग हज़ारों किलोमीटर चलकर जिंदगी ढूँढने अपने गाँव, शहर लौट गए।
कोरोना का कहर अभी और विकराल रूप धारण कर चुका था, अब मृत या संक्रमित लोगों में कुछ अपने दूर के मित्र, रिश्तेदार, ऑफिस के सहकर्मी के नजदीकी गिने जाने लगे, कोरोना का दायरा बढ़ता जा रहा है, और हमारी रक्षा घेरे का दायरा कम होता जा रहा था। पर साथ ही आश्चर्यजनक रूप से लोगों का डर भी घटता जा रहा था। या यूँ कह लें कि लोगो की आज़ाद घूमने की व्याकुलता, खुली हवा में लौंग ड्राईव पर जाने की व्याकुलता, सड़क किनारे ठेले से कुछ खाने की व्याकुलता बढ़ती जा रही थी।
और सरकार ने भी जनता की व्याकुलता को भांप लिया था। अनलॉक प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी, हवाई उड़ानें पुनः आरम्भ कर दी गई, बसें शुरू हो गई, और इन सब गतिविधियों को देखते हुए कई कंपनियां कर्मचारियों को वापस काम पर आने को मजबूर करने लगीं। अब शॉपिंग मॉल खुल गए, धार्मिक स्थल भी खोल दिये गए हैं। कोरोना खुश है, लोगों को भी लग रहा है जिंदगी चल पड़ी है। पर क्या ये सत्य है? क्या जिंदगी सचमुच चल पड़ी है या खींच रही है। क्या हमने जान की कीमत कम कर दी है? क्या अर्थव्यवस्था बचाने के लिए इंसान की जान का जुआ खेल सकते हैं? ये सब सवाल मेरे जेहन में रह-रह कर उठता है। क्या यही सवाल आपके दिमाग में भी है?
(लेखक: Priyankar Bhatt, Designation: Assistant Manager, Company Name: Travel Retail Services)

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