हमें धरती माँ को उसके सच्चे हक़दारों को सौंप देना होगा

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महात्मा गांधी ने सही ही कहा था: “प्रकृति मनुष्य की आवश्यकता के समस्त उपाय सुनिश्चित करेंगी किंतु उसके लालच के लिए कदापि नहीं “। यदि धरती माँ ने हमें जन्म दिया है तो वह हमें जीने के लिए हमारी सभी ज़रूरतें भी पूरा करेगी।

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लेखक: मीनाक्षी चतुर्वेदी (अंग्रेज़ी)
अनुवाद : लक्ष्मीकान्त शर्मा (हिंदी)
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लेखक: मीनाक्षी चतुर्वेदी (अंग्रेज़ी)
अनुवाद : लक्ष्मीकान्त शर्मा (हिंदी)

आइए, हम अपनी पीठ थपथपाएँ एक ऐसी दुनिया बनाने के लिए जिसमें हमने प्रकृति का विनाश कर एक कृत्रिम संसार की रचना कर दी है।

हिंदू मिथक के अनुसार पृथ्वी ग्रह पर जीवन की सम्भावना के पूर्व पंच महाभूत विद्यमान था । पंच महाभूत के इन्हीं पाँच तत्वों से मानव शरीर की रचना हुई। इन पाँच तत्वों का विनाश हमारे शरीर के विनाश जैसा है।

महात्मा गांधी ने सही ही कहा था: “प्रकृति मनुष्य की आवश्यकता के समस्त उपाय सुनिश्चित करेंगी किंतु उसके लालच के लिए कदापि नहीं “। यदि धरती माँ ने हमें जन्म दिया है तो वह हमें जीने के लिए हमारी सभी ज़रूरतें भी पूरा करेगी। लेकिन प्रकृति की इस सदाशयता से मनुष्य संतुष्ट नहीं हुआ। सीमित प्राकृतिक संसाधनों की अनदेखी कर मनुष्य ने अपनी असीमित आर्थिक विकास की चाह में विनाशलीला रच दी है। हमने धरती के कुछ हिस्से पर अधिकार जमा लिया है तो इसका यह अभिप्राय नहीं कि पूरी धरती पर हमारा एकाधिकार है।

हमारे ग्रह के विनाश की शुरुआत पहले से ही हो चुकी है। ग्रीष्म ऋतु में असमय बरसात और तूफ़ान का आना इस बात का संकेत है कि प्रकृति का नैसर्गिक चक्र बदल रहा है। पर्यावरण संतुलन भयावह रूप से प्रभावित हो रहा है। अप्रत्याशित जलवायु परिवर्तन ने वन्य जीवन तथा जैव विविधता को उनके प्राकृतिक चक्र एवं नैसर्गिक पर्यावास से भटका दिया है।

जलवायु संकट वर्तमान समय की सचाई है और बहुआयामी विश्वव्यापी संकट के दौर में अब अगली बारी उसकी है। महामारी तो सिर्फ़ जलवायु संकट के पूर्वाभ्यास की तरह ही है और वस्तुतः महामारी और जलवायु परिवर्तन में दो प्रकार के अंतर हैं। पहला यह कि जलवायु परिवर्तन अपने शिखर पर पहुँचकर वापस अपनी पूर्वस्थिति में नहीं जाता है। यदि हम ग्रीनलैंड और अंटार्क्टिक के बर्फ़ को पिघलने दें तो हम पाएँगे कि इन दो ध्रुवों के कारण सूर्य की किरणों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। सूरज की किरणे समुद्र में चली जाएँगीं और समुद्र का जलस्तर ऊपर की ओर उठेगा। प्रकृति से इस छेड़छाड़ के कारण हम समुद्र को अनावश्यक रूप से गर्म कर रहे हैं और इसके फलस्वरूप विनाशकारी मौसम का निर्माण हो रहा हैं। न्यूयार्क टाईम्स के स्तंभकार और पुलित्जर पुरस्कार विजेता थामस एल फ़्रीडमैन ने अपने शोध के आधार पर ऐसा निष्कर्ष निकाला है।

जिस अकल्पनीय गति से पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधन कम होते जा रहें हैं उसका अनुमान भी लगा पाना कठिन है । प्राकृतिक संसाधनों के क्षरण की यह तीव्र गति जीव-जंतु, जल आपूर्ति, मृदा की गुणवत्ता, वन संवर्धन तथा दूसरे अनेक जीवनदायक कारकों को जिस तेज़ी से प्रभावित कर रही है उसे व्यक्त करना आसान नहीं है। विश्व बैंक की वार्षिक रिपोर्ट -2008 के अनुसार विश्व की जनसंख्या का 20 प्रतिशत ग़रीब वर्ग धरती के संसाधनों का मात्र 1.5 प्रतिशत अपने उपभोग में लाता है जबकि 20 प्रतिशत अमीर वर्ग 76.6 प्रतिशत संसाधनों का उपभोग करता है।

जिस चीज़ पर हमारा नियंत्रण न हो उसे एक सीमा से बाहर जाकर नियंत्रित करना सम्पूर्ण विनाश को आमंत्रित करने जैसा है। कितना अजीब है कि इस स्वयंभू सर्वशक्तिमान प्राणी होमो सेपियंस को नियंत्रित करने के लिए एक अदृश्य और अत्यंत सूक्ष्मजीव को सामने आना पड़ा ताकि पृथ्वी पर अत्याचार और अनाचार करने की उसकी निरंकुश प्रवृत्ति पर अंकुश लग सके।

यह ख़तरनाक खेल यहीं ख़त्म नहीं हो जाता । कुछ लोग कह सकते हैं कि हालात उतने ख़राब नहीं हैं लेकिन मनुष्य को यह भी समझने की ज़रूरत है कि स्थिति और भी भयावह रूप धारण कर सकती है और उसके लिए किसी महामारी की भी आवश्यकता नहीं है। अकाल और भुखमरी भी एक बड़े पैमाने पर तबाही ला सकती है।

बेमौसम भारी बारिश और तूफ़ान व्यापक स्तर पर फ़सलों की बरबादी कर सकते हैं जिसके परिणामस्वरूप खाद्यान्न का अभूतपूर्व अभाव हो सकता है जिसका प्रभाव किसी महामारी से क़तई कम नहीं होगा।

आज जो स्थिति उत्पन्न हुई है उससे ग़रीब लोगों के सामने अस्तित्व का संकट आ गया है। लेकिन मानव समाज के अन्य वर्गों के लोग भी लम्बे समय तक प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। पूँजीवादी देश अमेरिका में जलवायु की बदलती परिस्थितियों ने परम्परागत कृषि चक्र को बुरी तरह प्रभावित किया है जिसकी अनुगूँज पूरे विश्व की कृषि व्यवस्था में सुनाई दे रही है । अनचाहे गर्म मौसम ने वसंत ऋतु में की जाने वाली फ़सलों की बुवाई के समक्ष विषम परिस्थिति पैदा कर दी है और मध्य पश्चिम क्षेत्र में तो कीचड़ ने और गहरी समस्या खड़ी कर दी है। इससे हो यह रहा है कि ज़्यादातर किसान एक ही खेत से दो फ़सल बोने की अपनी सुविचारित योजना छोड़ रहे हैं। जबकि उसी खेत से वसंत में वे सोयाबीन और शीत ऋतु में गेहूँ की फ़सल ले लेते थे । प्राकृतिक असंतुलन के कारण मजबूर होकर किसान अब बस गेहूँ की ही फ़सल ले पा रहे हैं । भीषण तबाही की आशंका की पुष्टि के लिए क्या यह प्रमाण पर्याप्त नहीं है ?

स्वार्थी मनुष्यों ने इस ग्रह को काफ़ी हद तक अपने वश में करने की कोशिश की है और वे न केवल अब तक अपने अस्तित्व को बचाए रखने में अपितु विकसित करने में भी कामयाब हुए हैं ।

ब्रिटिश क्रम-विकासवादी जीव विज्ञानी रिचार्ड डाकिंस 1976 में प्रकाशित अपनी किताब “दी सेल्फ़िश जीन “ में लिखते हैं: अनेक वर्षों में हमने तमाम ऐसी प्रौद्योगिकी विकसित कर ली है कि हम किसी भी प्राकृतिक आपदा जैसे ग्लोबल वार्मिंग, ग्रीनहाउस इफ़ेक्ट, प्रदूषण , ओज़ोन लेयर में कमी आदि का सामना कर सकने में सक्षम हैं। बस किसी छुद्र ग्रह के टक्कर पर ही हमारा वश नहीं है।

ब्रिटिश व्यवहार विज्ञानी और पर्यावरण संरक्षण की ख्यात विशेषज्ञ जेन गुडॉल ने म्यूनिख के बावेरिया में दिए गए अपने भाषण “ रीजंस आफ होप” में कहा : मौजूदा महामारी पृथ्वी के प्रति मनुष्य के व्यवहार को बदल देगी ।उन्होंने इस बात पर बल दिया कि समस्या का मूल कारण वन्यजीवन के प्रति हमारा अनादर ही है। गुडॉल आगे कहती हैं कि प्राकृतिक पर्यावास के विनाश से बड़े पैमाने पर विश्व को आर्थिक क़ीमत चुकानी पड़ सकती है।

मनुष्य की होमो सेपियंस प्रजाति पृथ्वी पर सर्वाधिक विकसित प्रजाति है । यह तथाकथित “ सामाजिक पशु “ इस धरती का सबसे अधिक प्रतिभावान प्राणी भी है।

टिकाऊ विकास सिर्फ़ एक सैद्धांतिक अवधारणा है जिसे बस हाई स्कूल और कालेज की कक्षाओं में वाणिज्य विषय के एक उपांग के रूप में पढ़ाया जाता है। इसके अलावा इसे कम्पनियों के ब्रोशर की शोभा बढ़ाने के उपयोग में लाया जाता है।

यह निष्कर्ष हाल ही में शुरू किए गए कतिपय पर्यावरण आंदोलनों से भी प्रमाणित हो जाता है। बाल पर्यावरण संस्कृतिकर्मी ग्रेटा थनबर्ग ने संयुक्त राष्ट्रसंघ सम्मेलन में बोलते हुए इस ख़तरे की ओर इशारा किया कि आज जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव के कारण पूरी मानवता के सामने अस्तित्व का संकट आ गया है । भारत की बाल पर्यावरण संस्कृतिकर्मी आठ वर्षीय लिकिप्रिया कंगुज़म भी कुछ इसी तरह के ख़तरों के प्रति लोगों को आगाह कर रही हैं ।

वैश्विक महामारी के इस घोर संकट काल में जीव जगत के लगभग विलुप्त हो जाने की चर्चा आम हो गई है। इस धरती पर रह रहे अरबों खरबों जीवों में से एक प्रजाति मनुष्य है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि जिस तरह इस पृथ्वी से अनेक जीव विलुप्त हो चुके हैं उसी प्रकार एक दिन मनुष्य नामक प्रजाति भी विलुप्त हो सकती है।

वैसे भी देखा जाए तो इस पृथ्वी ग्रह को मनुष्य की ज़रूरत नहीं है बल्कि मनुष्य को पृथ्वी की ज़रूरत है। अब समय आ गया है जब हमें बहुत गम्भीरता से सोचना होगा कि इस धरती पर हमारी जगह कहाँ और कितनी है और हमें धरती माँ को उसके सच्चे हक़दारों को सौंप देना होगा। आज पर्यावरण की रक्षा तथा उसके उन्नयन के लिए हममें से प्रत्येक व्यक्ति को एक क़दम बढ़ाना होगा और इस तरह माँ वसुंधरा के वात्सल्य का कुछ अंश में ही सही प्रतिदान तो करना ही होगा।

(अनुवादक लक्ष्मीकान्त शर्मा जबलपुर में रहते हैं)

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